कांग्रेस का पलड़ा कमजोर होता देख प्रियंका गांधी ने भी राजनीति में अपनी कदम रख दी. चुनाव शुरू होने के ठीक तीन पहले ही मोर्चा संभाली थी और काफी कम समय में ही मशहूर हो गयी लेकिन उनके मोर्चा संभालने से भी कोई लाभ कांग्रेस को नहीं मिला.

प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी गई थी और ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की. दोनों को ही पार्टी में महासचिव का पद दिया गया. उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी को उतारने को लेकर लोगों ने इसे ‘मास्टरस्ट्रोक’ भी बताया था तो कुछ लोग ये कहे कि कांग्रेस का ये फैसला जल्दीबाजी में लिया गया है.

उत्तर प्रदेश में त्रिकोणीय मुकाबला होना था, एकतरफ मजबूत भाजपा गठबंधन और दूसरी तरफ सपा-बसपा का महागठबंधन थी. इन दोनों गठबंधन के सामने कड़ी टक्कर देकर प्रियंका गांधी को कांग्रेस का खोया जनाधार वापस लाने की एक बड़ी चुनौती थी.

प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार के लिए कुल 38 रैलियां की, जिनमें 26 रैलियां उन्होंने सिर्फ यूपी में ही कर डाली थी. जितनी सीटों पर प्रियंका ने प्रचार किया उनमें से लगभग 97 फीसदी सीटों पर कांग्रेस को हार अपमान सहना पड़ा.

अमेठी सीट को कांग्रेस का पारंपरिक सीट और सबसे मजबूत किला कहा जाता था लेकिन जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का सामना यहां भाजपा की स्मृति ईरानी से हुई तो यहाँ उन्हें अपना पारंपरिक सीट भाजपा के हाथों गंवानी पड़ी. जबकि सोनिया गांधी अपने रायबरेली सीट को बचाने में कामयाब रही.