हम मांएं बेटियों को पुरुषों के कार्यक्षेत्र में उतरने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, इसे समय की आवश्यकता बताकर समाज की वाहवाही लूटती हैं, लेकिन बेटों को यह सोचकर घरेलू कामों से दूर रखती हैं कि यह तो स्त्रियों का कार्यक्षेत्र है, इसमें उन्हें व्यर्थ ही अतिक्रमण की कहां आवश्यकता है? क्यूं घर संभालना सिखाऊं? जब हम महिलाएं ही हमारे कार्य को हेय दृष्टि से देखेंगी, तो पुरुषों के मन में उन कामों के प्रति सम्मान कैसे जगाएंगी?

लेखिका : संगीता माथुर
“समधनजी आपसे काफ़ी घुल-मिलकर बात कर रही थीं। किस चीज़ के लिए बार-बार धन्यवाद मिल रहा था आपको? ज़रा हमें भी तो मालूम हो।” मेहमानों से विदा लेते ही महीपालजी ने तब से मन में उमड़-घुमड़ रहा सवाल पत्नी के सम्मुख दाग़ दिया।
“कुछ ख़ास बात नहीं। अभी जब मैं बच्चों के पास रहने गई थी, तब उनका घर थोड़ा अच्छे-से सेट कर आई थी। तो बस उसी के लिए…”
“ओह! आप औरतें भी न, घर-गृहस्थी से ऊपर उठ ही नहीं सकतीं।” महीपालजी के मानो मुंह का स्वाद बिगड़ गया हो, ऐसा मुंह बनाते हुए उन्होंने अख़बार में आंखें गड़ा दीं। ‘उठेंगी कैसे? आप जैसे मर्द उन्हें उठने का मौक़ा दें तब न?’ मन ही मन सोचती मालतीजी बैठक समेटने लग गईं।
इतने बरसों से वे अपने पति को देखती आ रही थीं। जानती थीं पुरुषत्व का अहं उनमें कूट-कूटकर भरा है। ऐसे आदमी को बदलना तो दूर, उसके संग निभाना ही बहुत बड़ी बात है। अक्सर जब हम अपना परिवेश बदल नहीं पाते, तब ख़ुद को उसके अनुकूल ढाल लेने में ही
समझदारी मान लेते हैं। मालतीजी भी इसी पथ पर अग्रसर थीं, लेकिन उन्होंने ठान लिया था कि अपनी बेटी तन्वी को वे अपनी तरह निर्बल नहीं रहने देंगी। उसे न केवल आर्थिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाएंगी।
भाई अनूप की तरह ही तन्वी का पालन-पोषण भी खुले वातावरण में हुआ। लाड़ली बेटी का मोह महीपालजी को उस पर कोई भी पाबंदी लगाने से रोकता रहा। परिणामस्वरूप तन्वी ने न केवल उच्च शिक्षा हासिल कर अच्छी नौकरी पाई, बल्कि शादी के बाद घर-बाहर की ज़िम्मेदारियां भी बहुत अच्छी तरह संभाल ली। तन्वी की व्यावसायिक उन्नति और सुख-संपन्न गृहस्थी मालतीजी को असीम सुकून से भर देती। आख़िरकार उनकी तपस्या सफल हुई। पत्नी प्रेम न सही, बेटी का प्रेम तो उनके पति को कुछ बदल सका।
बेटा अनूप भी उच्च शिक्षा हासिल कर अच्छी नौकरी में लग गया था। मालतीजी को बेटे के किसी लड़की तारा के साथ प्यार की भनक लग गई थी। उन्होंने एकांत में उससे सब उगलवा भी लिया था, पर मां-बेटे महीपालजी से यह सब कहते डर रहे थे। पता नहीं वे इसे किस रूप में लें? अनूप ने तो सब कुछ मां पर छोड़ दिया था। मालतीजी उपयुक्त अवसर की तलाश में रहने लगीं। शीघ्र ही उन्हें यह अवसर मिल गया। उस दिन तन्वी के सास-ससुर मिलने आए थे। तन्वी के साथ-साथ उन्होंने महीपालजी और मालतीजी की भी प्रशंसा के पुल बांध दिए कि वे बड़े प्रगतिशील विचारोंवाले अभिभावक हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को हर तरह की शिक्षा देकर उन्हें इतना योग्य बनाया है। महीपालजी गर्व से फूल उठे थे। समधियों के जाते ही मालतीजी ने अनूप का प्रसंग छेड़ दिया था।
“अपने बेटे की उम्र भी अब शादी योग्य हो गई है। हमें उसके लिए भी तन्वी जैसी कामकाजी और साथ ही अच्छे स्वभाव व गुणोंवाली लड़की ढूंढ़ लेनी चाहिए।”
“हां… हां… क्यों नहीं?”
और धीरे-धीरे उन्होंने तारा की बात पति के कानों में डाली। उसे हर तरह से अपने परिवार के क़ाबिल बहू बताकर पति को मनाया। महीपालजी राज़ी हुए, तो अनूप से भी ज़्यादा ख़ुशी मालतीजी को हुई। धूमधाम से तारा परिवार की बहू बनकर आ गई। चार दिन परिवार के साथ बिताकर वे फिर से अपने कार्यक्षेत्रवाले शहर लौट गए थे। तब से वे बराबर उनसे वहां आने का आग्रह किए जा रहे थे। तारा के माता-पिता तो एक बार जाकर आ भी चुके थे। मालतीजी का भी बेटे की गृहस्थी देखने का बड़ा मन हो रहा था, पर महीपालजी को दुकान से फुर्सत ही नहीं थी। उन्होंने मालतीजी से अकेले ही हो आने का आग्रह किया।
“आपने तो मुझे कभी घर से बाहर भी अकेले क़दम नहीं रखने दिया और अब?”
“चिंता न करो। यहां से मैं प्लेन में बैठा दूंगा और वहां अनूप लेने आ जाएगा। ढाई घंटे के अंदर तुम अपने बेटे के घर पहुंच जाओगी। कोई परेशानी नहीं होगी।”
प्लेन ने उड़ान भरी, तो मानो मालतीजी के विचारों को भी पंख लग गए थे। मालतीजी को एक नई ही दुनिया का आभास हो रहा था। अनूप लेने आ गया था। वह उनसे घर के और दीदी के हालचाल पूछ रहा था। लेकिन मालतीजी का ध्यान उसकी बातों में कम आसपास की दुनिया को निहारने में ज़्यादा था। पूरे रास्ते वे कार की खिड़की से उचक-उचककर महानगर की गगनचुंबी इमारतों को निहारती रहीं। घर आ गया था। नौकरानी ने दरवाज़ा खोला।
“तारा कहां है?” एक ही राउंड में दो बेडरूम का छोटा-सा घर घूम लेने के बाद मालतीजी ने पूछा था।
“ऑफिस चली गई। मैंने रास्ते में बताया तो था कि उसका जल्दी का टाइम है, इसलिए वह सुबह सात बजे तक निकल जाती है और ऑफिस भी दूर है। इसलिए वह साढ़े सात तक निकल जाती है। अब मैं नहाकर निकलता हूं। बाई आपको चाय-नाश्ता दे देगी और खाना भी बनाकर रख जाएगी। तारा रात 8 बजे लौटेगी और मैं 9 बजे। आप तब तक आराम करना, टीवी देखना…” कहते-कहते अनूप बाथरूम में घुस गया था। मालतीजी जिस उत्साह से आई थीं, यहां घर की हालत देखकर वो सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। सारा घर बेतरतीबी से बिखरा हुआ था। यहां-वहां कपड़े, क़िताबें, अख़बार बिखरे पड़े थे। टेबल और बेड पर जूठे कप-ग्लास के निशान बने हुए थे। बाई ने जूठे कप-ग्लास उठाकर धो डाले थे। झाड़ू पोंछा भी कर डाला था, पर वे निशान अभी तक मालती को मुंह चिढ़ा रहे थे। मालतीजी दूसरे बाथरूम से नहा-धोकर निकलीं, तब तक बाई जा चुकी थी और अनूप निकलने की तैयारी में था। वह उन्हीं के लिए रुका हुआ था।
“अच्छा मां, शाम को मिलते हैं।” कहकर वह भी निकल गया। मालतीजी एक पल को तो खाली घर में ठगी-सी खड़ी रह गईं, पर दूसरे ही पल उन्हें ख़ुद पर ही हंसी आने लग गई। इतनी ऊंची उड़ान भरकर आ रही हूं, पर सोच अभी तक छोटी की छोटी ही रही। अरे, जब पति-पत्नी सुबह ही काम पर निकल जाते हैं, तो यह सब तो होना ही था। क्या उन्हें पहले से ही अंदाज़ा नहीं लगा लेना चाहिए था कि घर की हालत ऐसी ही होगी? अच्छा हुआ महीपालजी साथ नहीं हैं, वरना वह उन्हें संभालती या घर को? चाय-नाश्ता करके मालतीजी काम में जुट गई थीं। शाम तक घर चमचमाने लगा था। उन्होंने डिनर तैयार किया और बच्चों की राह देखने लगीं।
पहले तारा लौटी। उसने मालतीजी के चरण स्पर्श किए, कुशलक्षेम पूछी। इस दौरान एक उचटती-सी दृष्टि सुव्यवस्थित घर पर डाली और अपने बेडरूम में चली गई। मालतीजी ने ख़ुद को उसकी जगह पर रखकर सोचा, तो उन्हें उसका व्यवहार अटपटा नहीं लगा। वे अनूप का इंतज़ार करने लगीं। अनूप आया तो घर का कायापलट देख ख़ुश भी हुआ और मां पर नाराज़ भी होने लगा।
“क्या मां, मैं आपको आराम करने का
कहकर गया था, पर आप तो सारा दिन काम में लगी रहीं।”
“अरे, कोई बस या ट्रेन में थोड़े ही आई हूं, जो थकान होगी और आराम की ज़रूरत पड़ेगी। फिर ये सब करने की तो मुझे बरसों से आदत है। अच्छा अब अपने रूम में जा, तारा भी आ गई है। फ्रेश हो लो। खाना खाने का मन हो तब मुझे बुला लेना।”
खाने के दौरान भी कोई विशेष बातचीत नहीं हुई। खाना तारा ने ही लगाया और समेटा भी। जल्दी ही सब सोने चले गए थे।
मालतीजी बिस्तर पर लेटी देर तक सोच-विचार में डूबी रहीं। मन न चाहते हुए भी ख़ुद का आकलन करने लगा था ‘तारा प्रोफेशनली साउंड है इसमें कोई शक नहीं था। तभी तो इतनी बड़ी कंपनी में इतने ऊंचे पद पर कार्यरत थी, लेकिन घर-गृहस्थी के मामले में कच्ची है। अब यह ज़रूरी तो नहीं कि हर लड़की तन्वी की तरह घर-बाहर दोनों ही मोर्चे बख़ूबी संभाल ले। ख़ुद वे घर अच्छी तरह संभाल सकती हैं, पर बस मात्र वही तो… अपनी इन्हीं कमज़ोरियों और आज के समाज की बदलती आवश्यकताओं को मद्देनज़र रखते हुए ही तो उन्होंने तन्वी को हर तरह से योग्य और सक्षम बनाया था। उसे अच्छा खाना बनाना और घर संभालना तो सिखाया ही, स्त्री होते हुए भी उसे कुछ पुरुष के
क्षेत्राधिकार माने जानेवाले गुर और ड्राइविंग, सेल्फ डिफेंसिंग भी सिखाई, पर… पर तन्वी की मां कहलाने पर उन्हें जिस गर्व का एहसास होता है, आज वैसा ही एहसास अनूप की मां कहलाने पर क्यों नहीं हो रहा है? इसका मतलब अनूप की शिक्षा-दीक्षा में उनसे अवश्य ही कोई कमी रह गई है। और उसी कमी का एहसास आज उन्हें खुलकर हो रहा है।
उन्होंने यह तो स्वीकार कर लिया था कि बदलती सामाजिक व्यवस्था में तन्वी को अपने स्त्रियोचित गुरों के अलावा कुछ पुरुषोचित गुर भी सीखने होंगे, लेकिन कभी यह नहीं सोचा कि बदलती सामाजिक व्यवस्था में अनूप को भी कुछ स्त्रियोचित गुर सीखने की आवश्यकता पड़ सकती है? वे सारा दोषारोपण तारा या उसके परिवारवालों पर कैसे लाद सकती हैं, जब उनका अपना सिक्का ही खोटा हो? हम मांएं बेटियों को पुरुषों के कार्यक्षेत्र में उतरने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, इसे समय की आवश्यकता बताकर समाज की वाहवाही
लूटती हैं। लेकिन बेटों को यह सोचकर घरेलू कामों से दूर रखती हैं कि यह तो स्त्रियों का कार्यक्षेत्र है, इसमें उन्हें व्यर्थ ही अतिक्रमण की कहां आवश्यकता है? क्यूं घर संभालना सिखाऊं? जब हम महिलाएं ही हमारे कार्य को हेय दृष्टि से देखेंगी, तो पुरुषों के मन में उन कामों के प्रति सम्मान कैसे जगाएंगी? यह हमारी परंपरागत रूढ़िवादी सोच ही तो है कि हम अपने बेटे को डॉक्टर, इंजीनियर या वैज्ञानिक बनाने का सपना तो देखती हैं, पर शेफ, नर्तक या चित्रकार बनाने का नहीं।”
देर रात तक मालतीजी विचारों के ऐसे ही ताने-बाने में उलझी रहीं। सवेरे देर से आंख खुली। फ्रेश होकर बाहर आईं, तब तक तारा ऑफिस निकल चुकी थी और अनूप सोफे पर पसरा अख़बार के पन्ने पलट रहा था। मालतीजी ने रसोई में झांका। वहां दूध की थैलियां रखी थीं। “तूने दूध नहीं पीया?”


“अभी बाई आकर दूध और अंडा उबालेगी।”
“और बाई नहीं आई तो?”
“तब तो मैं ऑफिस जाकर कैंटीन से कुछ खा-पी लूंगा।”
मालतीजी को कोई आश्‍चर्य नहीं हुआ। उनकी परवरिश उनके सम्मुख थी। बचपन से बड़े होने तक उसने घर में जो देखा, समझा था, वही अब तक दिमाग़ में था। मालतीजी उसे अपने साथ रसोई में ले गईं। गैस जलाना सिखाया। एक पर दूध, तो दूसरे पर अंडे उबलने रखे।
“आप यह सब मुझे क्यूं सिखा रही हैं?” अनूप हैरान था।
“तारा घर चलाने में तेरा कंधे से कंधा मिलाकर साथ देती है ना? आर्थिक ज़िम्मेदारियां तुम दोनों शेयर करते हो?”
“हां”
“कल शाम वह बाज़ार से सब्ज़ी-राशन लेकर लौटी थी ना?”
“हां तो? उसे पता है क्या लाना है और बाज़ार भी उसके रास्ते में पड़ता है।”
“जब वह तुम्हारी ज़िम्मेदारियां बांट सकती है, तो तुम उसकी क्यों नहीं?”
“पर मुझे यह सब कहां आता है? घर पर पापा भी तो नहीं करते हैं?”
“हमारा ज़माना अलग था। स्त्री-पुरुष के कार्यक्षेत्र स्पष्ट विभाजित थे और वे उसमें संतुष्ट थे। अब ज़माना बदल गया है,
आवश्यकताएं बदल गई हैं, तो तदनुसार सामाजिक व्यवस्था भी बदल रही है। क्या तुम चाहते हो कि तारा नौकरी छोड़कर घर बैठ जाए, मेरी तरह मात्र चूल्हा-चौका संभाले?”
“नहीं, यह कैसे हो सकता है? मैं अकेला कैसे कार की, मकान की ईएमआई दे सकता हूं?”
“तो फिर उससे अकेले ऑफिस और घर की ज़िम्मेदारी संभालने की उम्मीद भी तुम कैसे कर सकते हो? तुम्हें उसकी मदद करनी होगी बेटे! तुम उसके बाद घर से निकलते हो। बिस्तर, लिहाफ आदि झाड़कर-समेटकर रख सकते हो। कपड़े, अख़बार तहकर रख सकते हो।” जितने दिन मालतीजी वहां रहीं। अनूप को कुछ न कुछ सिखाती रहीं।
बाई को भी उन्होंने बच्चों की पसंद की कुछ सब्ज़ियां आदि बनानी सिखाई। अपनी अनुपस्थिति में रोज़ शाम के लिए सब्ज़ियां काटने और आटा गूंथकर रख जाने की ताकीद की। अभी तक तारा यही समझ रही थी कि मालतीजी अकेली सारे दिन काम में जुटी रहकर रसोई सहित पूरा घर सुव्यवस्थित किए रहती हैं। इसलिए वह हर व़क्त शर्मिंदगी और ग्लानि से भरी उनसे नज़रें चुराती रहती। लेकिन उनके जाने के बाद भी व्यवस्था वैसे ही बनी रही, तो उसका माथा ठनका। हक़ीक़त जानकर अपनी सास के प्रति उसका सिर श्रद्धा से झुक गया।
पहले घर में घुसते ही उथल-पुथल देखकर उसका सारा मूड चौपट हो जाता था। बिखरा घर समेटते-समेटते वह थककर चूर हो जाती थी। फिर खाने के नाम पर पुलाव या नूडल्स के अलावा उसे कुछ नहीं सूझता था, लेकिन अब ताला खोलते ही साफ़-सुथरा जमा-जमाया घर, रसोई में कटी सब्ज़ियां और गुंथा आटा देखकर उसका मन प्रसन्न हो उठता। अपने लिए चाय चढ़ाकर वह दूसरी गैस पर सब्ज़ी छौंक देती और फिर अनूप के लौटते ही गरम-गरम फुलके उतारकर दोनों साथ खाने का आनंद लेते। गृहस्थी एक व्यवस्थित ढर्रे पर चलने लगी, तो ज़िंदगी में स्वतः ही रस घुलने लगा। खीझ और चिड़चिड़ाहट का स्थान प्यार-रोमांस ने ले लिया। इस बार तारा के माता-पिता आए, तो गृहस्थी का पलटा हुआ रूप देखकर ख़ुश हुए। अपनी यही ख़ुशी आज तारा की मां मालतीजी के सामने व्यक्त कर रही थीं और बार-बार उनका आभार जता रही थीं।
मालतीजी की मन मोह लेनेवाली प्रतिक्रिया थी, “बहनजी, ज़िंदगी में ख़ुशियां बैंड-बाजे के साथ भी आ सकती हैं और दबे पांव चुपके-चुपके भी। महत्वपूर्ण है ख़ुशियों का आना और बरक़रार रहना। बाकी सभी बातें उसके सामने गौण हो जाती